उठो! जागो!….
अभी इतना भी नहीं बिगड़ा है कि, जिसे सुधारा न जा सके।।
नमन कृष्ण महाराज ।
रिपोर्ट । ललित जोशी।
नैनीताल। नमन कृष्ण महाराज ने यह कविता अपने भक्तों को मोबाइल फोन के माध्यम से भेजी है।
अरब सागर से चली
नमकीन हवाओं ने
लील लिया है
हिमालयी शुद्ध हवाओं को
जहां तैरती थीं वेद की ऋचाएं
अब गर्दभ स्वरों ने सोख लिया है सब
खेत-खलिहानों की महक
सप्त धान्यों से उठती सुवास
सरसों के फूलों से झरता पराग
आम्रवन की मंजरियों से उठता गुंजार
बारिश में लिपटी मिट्टी की सौंधी सुगंध
तुलसी, जैत, उत्तमांग,
कमल, केतकी, गुलाब,
चम्पा, कनेर, हरसिंगार
को निगल लिया है खारेपन ने,
पर्वत के शिखर से लेकर घाटियों में
मंदिरों के उत्तुंग शृंग से कपोत-गर्भ तक
फैल गई हैं नमकीन हवाएँ
नमकीन हवाएँ……
जिन्होंने अब बवंडर का रूप
धर लिया है
आच्छादित हो गया है आकाश धूल-गर्द
से
दृष्टि दृश्यविहीन हो चुकी है
कर्णपुट जिन्हें ऋचाएं मधुर थपकियां देती थीं
अब हुआं हुआं के शोर से फटने लगे हैं
न मार्ग सुहाता है
न सचेत-स्वर सुनाई पड़ते हैं
न ही स्मरण रहता है कुछ भी
अरब सागर की नमकीन हवाओं ने
छीन लिया है वो सब
मसलन जिन्हें होना ही चाहिए था
इस धरा पर उच्च मानवीयता के लिए,
सत्य, प्रेम, करूणा, मैत्री के लिए!
क्या सचमुच बिला गया-
पूर्वजों का ज्ञान-गौरव
सभ्यता का प्राचीन वैभव
सनातन का सार्वभौमिक उदघोष
इतने पर भी कहीं दूर से
अनेक-अनेक ऋषि
हिमालय की उपत्यकाओं से,
गिरी और कन्दराओं से,
शिखराग्र और गुफाओं से
समवेत पुकारते हैं——
“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधतः”
उठो! जागो!….
अभी इतना भी नहीं बिगड़ा है कि,
जिसे सुधारा न जा सके।।
© Naman Krishna Bhagwat Kinker