सार
हरबंस कपूर वर्ष 1985 में भाजपा के टिकट पर देहरादून विधानसभा सीट से चुनाव लड़ते हुए कांग्रेस प्रत्याशी हीरा सिंह बिष्ट से चुनाव हार गए थे। यह उनका पहला चुनाव था। यही उनकी पहली और आखिरी हार भी थी।
ख़बर सुनें
ख़बर सुनें
वो जमाना ही कुछ और था। दल भले ही अलग थे, लेकिन दिल सदा जुड़े रहे। एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन शाम की चाय अकसर किसी एक ठिए पर होती थी। पूर्व विधायक हीरा सिंह बिष्ट कहते हैं-साधा जीवन, उच्च विचार के धनी हरबंस कपूर आज नई पीढ़ी के लिए प्रेरणाश्रोत से कम नहीं।
उनकी पहली और आखिरी हारहरबंस कपूर वर्ष 1985 में भाजपा के टिकट पर देहरादून विधानसभा सीट से चुनाव लड़ते हुए कांग्रेस प्रत्याशी हीरा सिंह बिष्ट से चुनाव हार गए थे। यह उनका पहला चुनाव था। यही उनकी पहली और आखिरी हार भी थी। इसके बाद राजनीति के मंच पर वह हमेशा विजयी रहे। वर्ष 1989, 1991, 1993 और 1996 में उत्तर प्रदेश, जबकि वर्ष 2002, 2007, 2012 और 2017 में वह जीतकर अंतिम समय तक उत्तराखंड विधानसभा का हिस्सा बने रहे। राजनीति में उनके प्रतिद्वंद्वी और सार्वजनिक जीवन में कॉलेज के दिनों के अभिन्न मित्र पूर्व विधायक हीरा सिंह बिष्ट बताते हैं तब देहरादून में तीन विधानसभा क्षेत्र देहरादून, मसूरी और चकराता ही होते थे।
वर्ष 1985 का चुनाव हमारी पहले राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता नहीं थी। वर्ष 1972-75 के बीच डीएवी (पीजी) कॉलेज में भी छात्रसंघ राजनीति में हम सक्रिय रहे। तब वर्ष 1972-73 में एनएसयूआई से अध्यक्ष, जबकि हरबंस एबीवीपी से महासचिव चुने गए थे। हीरा सिंह बिष्ट बताते हैं, तब डीएवी का चुनाव भी बड़ा चुनाव होता था। हम कॉलेज परिसर में ही बारी-बारी चार से पांच हजार बच्चों को एड्रेस करते थे। मंच पर मुद्दों पर बात होती थी। कभी भी एक-दूसरे पर व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप नहीं लगाते थे।
Harbans Kapoor Death: हरबंस कपूर के नाम है लगातार एक ही क्षेत्र से आठ बार विधायक रहने का रिकॉर्ड, पढ़ें उनके जीवन की खास बातें
बकौल बिष्ट, कॉलेज से निकलकर हम लोग सक्रिय राजनीति में आए तो यहां भी दल अलग होने की वजह से हमेशा एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी बने रहे। लेकिन यह प्रतिद्वंदीता कभी भी सर्वाजनिक जीवन में नहीं आने दी। चुनाव प्रचार हो या अन्य मौके, हम अकसर किसी न किसी ठिए पर मिलते, चाय की चुस्कियों का दौर चलता और हंसी-ठिठोली की खूब बातें होती। किसी की मदद करने की बात आती तो एक साथ मिलकर उसकी मदद करते। इस शहर ने अब एक सहज, मिलनसार, संघर्षशील और अपेक्षाकृत निर्विवादित जनप्रतिनिधि खो दिया। कपूर एनडी तिवारी और गुलाब सिंह के बाद ऐसे तीसरे विधायक हुए, जो 8वीं बार विधानसभा का हिस्सा बने। 1990 के दशक में अपने पुराने स्कूटर पर कार्यकर्ताओं या क्षेत्र के मतदाताओं के सुख-दुख में सहभागी बनने पहुंच जाना, उन्हें तमाम अन्य नेताओं से अलग करता था और यही उनकी लोकप्रियता की एक बड़ी वजह भी थी।
दो बार उनसे चुनाव हारा, लेकिन रिश्ते हमेशा प्रगाढ़ रहेपूर्व कैबिनेट मंत्री दिनेश अग्रवाल हरबंश कपूर से जुड़ी कई यादों को साझा करते हुए कहते हैं- मैं उनसे दो बार (वर्ष 1993 और 1996) देहरादून विधानसभा क्षेत्र से चुनाव हारा। हम चुनाव में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी होते थे, लेकिन सार्वजनिक जीवन में घर-परिवार तक रिश्ते हमेशा प्रगाढ़ रहे। उनके सहज स्वभाव के सभी कायल थे। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान कपूर हमेशा सक्रिय रहे और जेल गए। तब धरना-प्रदर्शनों का दौर था। कचहरी परिसर उसका केंद्र होता था। तमाम तरह की राजनीतिक गतिविधियों के बीच अकसर वहीं मुलाकात होती थी। वह विधायक होने के बावजूद क्षेत्र की हर छोटी-बड़ी समस्या के प्रति जागरूक रहते थे। आए दिन किसी न किसी मुद्दे को लेकर उन्हें डीएम कार्यालय में देखा जा सकता था। ऐसे सहज इंसान का जाना अब बहुत अखर रहा है।
तीन दिन पहले शनिवार को चौथी विधानसभा के अंतिम सत्र के दौरान स्मृति के तौर पर विधायकों की ग्रुप फोटो खिंचावाई गई। इस फोटो में उत्तराखंड के सबसे वरिष्ठ विधायक और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष रहे कपूर दूसरी पंक्ति में खड़े दिखाई दे रहे हैं। जबकि कई कनिष्ठ विधायक अग्रिम पंक्ति में बैठे दिखाई दे रहे हैं। आज भले ही सोशल मीडिया पर उनके जाने के बाद इस फोटो ने लोगों का ध्यान खींचा और आलोचना की, लेकिन यह कपूर की सादगी ही थी, जो वह चुपचाप पीछे खड़े हो गए, जबकि उनका स्थान अग्रिम पंक्ति में होना चाहिए था।
…तब कपूर साहब स्कूटर से उतरकर साथ-साथ पैदल चलने लगेदेहरादून, हरबंस कपूर और जनकवि डॉ. अतुल शर्मा तीनों ऐसे नाम हैं, जो इस शहर की आत्मा से जुड़े हैं। अब जब कपूर चले गए तो डॉ. अतुल शर्मा ने उन्हें अपने शब्दों में कुछ यूं याद किया। बकौल डॉ. अतुल शर्मा हम सुभाष रोड के पास रहते थे। एक दिन कपूर साहब अचानक घर आए और मुझे किसी क्लब की कविगोष्ठी में आमंत्रित किया। मैं वहां गया, लेकिन देर हो गई थी। सभी अपनी गाड़ी से चले गए। मैं रात को पैदल घर की ओर चला। परेड ग्राउंड के पास कुछ दूूर गया ही था।
तभी पीछे से किसी स्कूटर के आने की आहट हुई। देखा तो वह हरबंस कपूर थे। बोले, आप हमारे मेहमान हैं। मैं आपको घर छोड़कर आऊंगा। मैं आश्चर्य में पड़ गया। उनकी कर्तव्य भावना को नमन करने लगा। मैंने दृढ़ता से मना कर दिया। कहा, मैं आराम से चला जाऊंगा। साधारण आदमी हूं, पैदल चलने का अभ्यास है। लेकिन वह नहीं माने। स्कूटर से उतरकर उसे खींचते हुए साथ पैदल चलने लगे। अंतत: मुझे स्कूटर पर बैठना पड़। फिर वह मुझे घर छोड़कर लौट गए। यह उनका अत्यंत आत्मीय व्यवहार था।
उनके विधानसभा अध्यक्ष रहते हुए एक कार्यक्रम में मुझे अचानक जनगीत गाने के लिए मंच पर आमंत्रित किया गया। मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। मैंने असहमति व्यक्त की। लेकिन जब कपूर साहब ने अपना उद्बोधन शुरू किया तो अन्य बातों के साथ मेरे लिखे गीत की पंक्तियां भी सुना दी। बाद में मैंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए उनसे पूछा, आपको गीत कैसे याद है? तब उन्होंने जो जवाब दिया, वह शब्द मेरे लिए बड़ा सम्मान थे। उन्होंने कहा-आपके गीत तो जनगीत है। उन्हें याद करने की जरुरत नहीं है। वह तो सबके मन में बसे हैं। इसके बाद वक्त-बेवक्त हमेशा उनका सानिध्य मिलता रहा। मेरी मां का निधन हुआ तो बहुत से आत्मीय लोग एकत्रित हुए। आंसुओं से भरी आंखों के साथ मेरे कंधे पर हाथ रखकर मां की निर्मम चिता के सम्मुख मेरे साथ खड़े रहे। ऐसे व्यक्ति को कोई भला कैसे भूल सकता है।
विस्तार
वो जमाना ही कुछ और था। दल भले ही अलग थे, लेकिन दिल सदा जुड़े रहे। एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन शाम की चाय अकसर किसी एक ठिए पर होती थी। पूर्व विधायक हीरा सिंह बिष्ट कहते हैं-साधा जीवन, उच्च विचार के धनी हरबंस कपूर आज नई पीढ़ी के लिए प्रेरणाश्रोत से कम नहीं।
उनकी पहली और आखिरी हार
हरबंस कपूर वर्ष 1985 में भाजपा के टिकट पर देहरादून विधानसभा सीट से चुनाव लड़ते हुए कांग्रेस प्रत्याशी हीरा सिंह बिष्ट से चुनाव हार गए थे। यह उनका पहला चुनाव था। यही उनकी पहली और आखिरी हार भी थी। इसके बाद राजनीति के मंच पर वह हमेशा विजयी रहे। वर्ष 1989, 1991, 1993 और 1996 में उत्तर प्रदेश, जबकि वर्ष 2002, 2007, 2012 और 2017 में वह जीतकर अंतिम समय तक उत्तराखंड विधानसभा का हिस्सा बने रहे। राजनीति में उनके प्रतिद्वंद्वी और सार्वजनिक जीवन में कॉलेज के दिनों के अभिन्न मित्र पूर्व विधायक हीरा सिंह बिष्ट बताते हैं तब देहरादून में तीन विधानसभा क्षेत्र देहरादून, मसूरी और चकराता ही होते थे।
वर्ष 1985 का चुनाव हमारी पहले राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता नहीं थी। वर्ष 1972-75 के बीच डीएवी (पीजी) कॉलेज में भी छात्रसंघ राजनीति में हम सक्रिय रहे। तब वर्ष 1972-73 में एनएसयूआई से अध्यक्ष, जबकि हरबंस एबीवीपी से महासचिव चुने गए थे। हीरा सिंह बिष्ट बताते हैं, तब डीएवी का चुनाव भी बड़ा चुनाव होता था। हम कॉलेज परिसर में ही बारी-बारी चार से पांच हजार बच्चों को एड्रेस करते थे। मंच पर मुद्दों पर बात होती थी। कभी भी एक-दूसरे पर व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप नहीं लगाते थे।
Harbans Kapoor Death: हरबंस कपूर के नाम है लगातार एक ही क्षेत्र से आठ बार विधायक रहने का रिकॉर्ड, पढ़ें उनके जीवन की खास बातें
बकौल बिष्ट, कॉलेज से निकलकर हम लोग सक्रिय राजनीति में आए तो यहां भी दल अलग होने की वजह से हमेशा एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी बने रहे। लेकिन यह प्रतिद्वंदीता कभी भी सर्वाजनिक जीवन में नहीं आने दी। चुनाव प्रचार हो या अन्य मौके, हम अकसर किसी न किसी ठिए पर मिलते, चाय की चुस्कियों का दौर चलता और हंसी-ठिठोली की खूब बातें होती। किसी की मदद करने की बात आती तो एक साथ मिलकर उसकी मदद करते। इस शहर ने अब एक सहज, मिलनसार, संघर्षशील और अपेक्षाकृत निर्विवादित जनप्रतिनिधि खो दिया। कपूर एनडी तिवारी और गुलाब सिंह के बाद ऐसे तीसरे विधायक हुए, जो 8वीं बार विधानसभा का हिस्सा बने। 1990 के दशक में अपने पुराने स्कूटर पर कार्यकर्ताओं या क्षेत्र के मतदाताओं के सुख-दुख में सहभागी बनने पहुंच जाना, उन्हें तमाम अन्य नेताओं से अलग करता था और यही उनकी लोकप्रियता की एक बड़ी वजह भी थी।
दो बार उनसे चुनाव हारा, लेकिन रिश्ते हमेशा प्रगाढ़ रहे
पूर्व कैबिनेट मंत्री दिनेश अग्रवाल हरबंश कपूर से जुड़ी कई यादों को साझा करते हुए कहते हैं- मैं उनसे दो बार (वर्ष 1993 और 1996) देहरादून विधानसभा क्षेत्र से चुनाव हारा। हम चुनाव में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी होते थे, लेकिन सार्वजनिक जीवन में घर-परिवार तक रिश्ते हमेशा प्रगाढ़ रहे। उनके सहज स्वभाव के सभी कायल थे। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान कपूर हमेशा सक्रिय रहे और जेल गए। तब धरना-प्रदर्शनों का दौर था। कचहरी परिसर उसका केंद्र होता था। तमाम तरह की राजनीतिक गतिविधियों के बीच अकसर वहीं मुलाकात होती थी। वह विधायक होने के बावजूद क्षेत्र की हर छोटी-बड़ी समस्या के प्रति जागरूक रहते थे। आए दिन किसी न किसी मुद्दे को लेकर उन्हें डीएम कार्यालय में देखा जा सकता था। ऐसे सहज इंसान का जाना अब बहुत अखर रहा है।